Thursday, August 23, 2018

बच्चों में नैतिक शिक्षा का बुनियादी प्रश्न !

बालक के जन्म के साथ ही शिक्षा के संस्कार का कार्य सभारंभ ले जाता है। माता-पिता अबोध बच्चों से ही बातें बोलते हैं-जिनमें संस्कार की गंध होती है तथा वे चाहते हैं कि उनका बच्चा एक सुनागरिक बने और समाज में उसकी एक पहचान बने। पहचान के लिए जो संस्कार शिक्षा स्वरूप बालकों को दिये जाते है। वे आदर्शो तथा नैतिक मान्यताओं के ही सन्निकट होते है। अबोध काल से प्रारंभ इस संस्कार भाव को जो गति मिलनी चाहिए, वह औपचारिक शिक्षा की दीक्षा से कम होने लगती है तथा माता-पिता इस बात से आश्वस्त हो जाते है कि बच्चा स्कूल जाने लगा है और वह वहीं से तमाम आदर्श व विनम्रतायें सीख रहा है, जो उसे जरूरी हैं। शनैः-शनैः माता-पिता कतई बेफ्रिक हो जाते हैं तथा संस्कारों की शिक्षा औपचारिक शिक्षा के बोझ तले दबती चली जाती है जिससे बच्चों में नैतिक मूल्य शिक्षा का अभाव बढ़ता चला जाने से वह सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के महत्त्व को नहीं समझ पाता और सुनागरिक निर्माण का कार्य वहीं ठप्प हो जाता है।

इसके अतिरिक्त माता-पिता की बढ़ती व्यवस्तता, बदलते जीवन मूल्यों तथा दूरदर्शन संस्कृति ने भी परिवारों में नैतिक शिक्षा के कार्य में रूकावटें खड़ी की हैं तथा इसके वातावरण निर्माण की उपेक्षा हुई है। बढ़ता जीवन स्तर तथा उसके लिए बढ़ता जीवन संघर्ष पारिवारिक संस्कार शिक्षा की बाधा बना है। आज घरों में भौतिक सुख-सुविधायें बढ़ाने-जुटाने की लालसा बलवती हुई है तथा अभिभावक अपने बच्चों के प्रति दायित्वों से विमुख हुये हैं। वे विद्यालयों पर निर्भर हो गये हैं। तीन वर्ष तक तो अवश्य वे सोचते हैं कि बच्चों को नैतिक मूल्यों की घुट्टी पिला पाते हैं, लेकिन वे इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि तीन वर्ष की अबोध आयु अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं करा पाती इसलिए उनके द्वारा दिये जाने वाले संस्कार इस आयु में प्रभावी नहीं हो पाते। शिशु कक्षाओं में प्रवेश के बाद माता-पिता की निश्चिंतायें बढ़ती हैं तथा वे नैतिक शिक्षा अथवा नैतिक संस्कार के लिए भी विद्यालय शिक्षा पर निर्भर करने लगते हैं। यहीं चूक होती है तथा बच्चा अन्य विषयों के मायाजाल में उलझकर नैतिक मूल्यों को जीवन में उतारने के प्रति सक्षम नहीं बन पाते तथा संस्कारों का समावेश उनमें नहीं हो पाता है।

मनुष्य की समाज में जीवन शैली में भी व्यापक परिवर्तन हो गया है। पचास से सौ साल पहले का रहन-सहन, खान-पान, पहन-पहनावा तथा जीवन-प्रंसग सब कुछ बेतहाशा रूप से बदल गये हैं, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के परिवर्तन से माता-पिता तथा संतान के मध्य भी एक दूरी का नया परिवेश बन गया है, जिससे एक अंतराल तथा मोहभंग की सी स्थिति बनी है। माता-पिता एक सीमा तक बच्चों से कोई सीख की बात कह पाते हैं। तत्पश्चात् वे अपने को इसके लिए तैयार कर लेते हैं कि यदि बच्चों में लापरवाही का भाव बढ़ रहा है तो वे उसे उसके हाल पर छोड़ दें।

चन्द्रकान्ता शर्मा



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